Monday 27 January 2014

कमियां इसमें भी नहीं हैं और उसमें भी नहीं थीं - बी.पी. गौतम


सूत्र जिन्दगी के हों या गणित के, सब जगह एक समान ही रहते हैं, हर जगह दो और दो चार ही होते हैं, इसी तरह अनुभूति अमेरिका में की जाये या नीदरलैंड में, समान प्रभाव ही छोड़ेगी, पर मन हर जगह और हर समय समान नहीं रहता, इसे वो चाहिए, जो नहीं है, मन पर काबू पाने की कला जिसे आती है, वो मस्त और स्वस्थ रह सकता है, खास कर उन टीन एजर्स के लिए यह पोस्ट डाल रहा हूँ, जो बहुत जल्दी ऊब जाते हैं, लडकियाँ विशेष ध्यान दें कि इस धरती पर कोई परफेक्ट नहीं है, सब में कुछ न कुछ कमी है, वो अपने में पूर्ण है, लेकिन आपके अनुरूप नहीं है, आपके अनुरूप धरती पर कोई है ही नहीं, क्योंकि उसमें दिमाग है और जिसमें दिमाग होगा, वह सोचेगा, उसकी अपनी पसंद होगी, अपने स्वाद होंगे, बोलने-चलने से लेकर उठने-बैठने तक अपने अंदाज़ होंगे, वो आपकी ख़ुशी के लिए जितना बदल सकता है, उतना स्वतः बदल जाएगा, उससे अधिक की अपेक्षा के दबाव में जो है, वो भी खत्म हो जाता है, कुछ लोग न दबाव देते हैं और न ही अपेक्षा रखते हैं, शांत रहते हैं, सब ठीक चलता रहता है, लेकिन शादी, ट्रेन, बस, फेसबुक, मोबाइल, घर, पड़ोस, ऑफिस या कहीं भी अवसर मिलते ही स्पेस दे देते हैं, यही स्पेस प्रेमी, पति, साथी, दोस्त जो भी है, उससे धीरे-धीरे दूर ले जाने लगता है, नया वाला एक पल को परफेक्ट नज़र आने लगता है और उधर से खत्म कर इधर जुड़ने के बाद पता चलता है कि इसमें तो उससे भी ज्यादा कमियां हैं, जबकि कमियां इसमें भी नहीं हैं और उसमें भी नहीं थीं, कमियां आपकी पसंद में भी नहीं हैं, पर जिस ख़ुशी को आप किसी और में खोज रहे हैं, वह मिलनी नामुमकिन है, ख़ुशी खुद के अंदर ही रहती है, उसे जगाइए और मस्त रहिये, इस भागा-भागी का कोई अंत नहीं है ... एक उदाहरण देता हूँ, बहुत बड़े परिवार की महिला है, दो वर्ष शादी को हुए हैं, वो महिला सुबह दस बजे से रात के दस बजे तक एक लड़के से चैट करती है, मोबाइल पर बात करती है, लड़के ने कुछ देना चाहा, तो साफ़ मना कर दिया, उल्टा खुद शॉपिंग कर उसे महंगे गिफ्ट दे गई, लड़के ने सेक्स की इच्छा जाहिर की, तो साफ़ मना कर दिया और बोली कि उनसे अच्छा नहीं कर पाओगे, बहुत अच्छे से करते हैं वो, लड़के ने सवाल किया फिर क्यूं पीछे पड़ी हो, तो उसने कहा कि उनके पास मुझ से बात करने का टाइम नहीं है, वो तुम अच्छी करते हो, बाकी सब उनका ही अच्छा है, बहुत प्यार करते हैं, बहुत पैसे देते हैं, नौकर, गाड़ी, घर सब है, कुछ नहीं चाहिए, मेरी जानकारी में यह केस जब से आया है, तब से इस विषय पर शोध कर रहा हूँ ... क्योंकि वो रात-दिन यह सोच कर जुटा हुआ है कि पत्नी और बच्चों को और लग्जरी लाइफ दे दूं, पर वो लग्जरी पत्नी को नहीं भा रही, उसे साथ चाहिए ... अब यहाँ सवाल यह है कि वो बहुत अच्छी बातें कर रहा होता और लग्जरी लाइफ न दे पाता तो ... इसलिए एडजस्टमेंट की हिंदी चाहे जो हो, अर्थ उसका आदर्श होता है ... प्राकृतिक स्वतंत्रता का अर्थ है कि इंसान अपने मन से जिए, जैसे जानवर जीते हैं, लेकिन इंसान की स्वतंत्रता समाज के अधीन है, क़ानून के अधीन है, परिवार के अधीन है, रिश्तों के अधीन है, इन सब के दायरे में रहने के बाद जो बचता है, वो खुद का है, उसे जी लो, पवित्र और पूज्यनीय गंगा किनारों से बाहर निकलने लगती है, तो गालियाँ देते हुए किसी को संकोच नहीं होता ... इस संकोच को बनाये रखें ...

Saturday 25 January 2014

गरीब छात्र गरजू की जमीन नजर आते हैं,,,

शिक्षा प्रथम अधिकार है और अगर नहीं है तो कर दिया जाना चाहिए, वैसे अधिकार तो बहुत से प्राप्त हैं द्वितीय, तृतीय और भी दो चार,, न्याय का अधिकार भी है,, जमीन गिरवी रखवाकर सही शिक्षा न देना भी अन्याय ही है और योग्य शिक्षित को रोजगार न मिलना भी अन्याय है,, मतलब न शिक्षा है न न्याय है, और जहाँ अन्याय है वहाँ बाकी के अधिकार मिल भी जायें तो क्या,,? हर शिक्षण सत्र शुरू होते ही शिक्षा माफियाओं के गुर्गे गाओं, कस्बों, बीहड़ों में असामियों कि खोज में निकल पड़ते हैं,, MBA, MCA, BE, जैसे बड़े बड़े अंग्रेजी नाम बताते हैं IIT, IIM पैकेज बताते हैं और मुर्गा पकड़ लाते हैं 2-4 साल लूटते हैं फिर खुला छोड़ देते हैं,, ये किसान को ट्रेक्टर बेचने जैसा है, एजेंट को बस अपने टारगेट से मतलब फिर भले ही किसान आत्महत्या कर ले उसकी किश्त डूब जाये या ट्रेक्टर बैंक में धरा नजर आये, एजेंट को सिर्फ अपने कमीशन से मतलब, यकीन न हो तो आंकड़े टटोले जा सकते हैं,, शिक्षा और रोजगार के बीच एक बड़ा निर्जन, निर्जल दर्रा है, गरीब छात्र गरजू की जमीन नजर आते हैं और महाविद्यालय, यूनिवर्सिटी संचालक निर्दयी जमींदार,,!
DD 1 पर बिहार (मिथिलांचल) के शिक्षा स्तर को लेकर एक डिबेट चल रहा है,, करीब 200 कि संख्या में उपस्थित छात्र, शिक्षक, प्राध्यापक, और निदेशक आदि शिक्षा जगत में फैले भ्रस्टाचार पर अपने अपने विचार व्यक्त कर रहे है शिक्षा के स्तर से लेकर शिक्षा माफिया, बैंकों में गिरवी रखी जमीनें और प्रतिभा पलायन, छात्र आत्महत्या, किसान आत्महत्या, और भी कई ज्वलंत विषयों पर कड़ी टिप्पणियां सुनने को मिली, बिहार का गौरवमयी इतिहास यहाँ के छात्रों को चिढाने लगा है वो कहते हैं क़ी ये वो वक़्त नहीं है जब शिक्षित होकर एक कमरे मैं दुबक कर कालजयी रचनायें लिखी जायें जबकि परिवार भूख से मर रहा हो, पिछले सत्र मैं ख़ाली रही 50 प्रतिशत सीटें और बंद हुए महाविद्यालयों कि संख्या एक बड़े बदलाव की तरफ इशारा कर रही हैं,,!

Monday 13 January 2014

"Vashishth Narayan Singh" one of the the greatest Mathematician alive

                                                                                    This picture is of "Vashishth Narayan Singh" one of the the greatest Mathematician alive. When most of us are striving hard to get a visa for USA this man came back to India in 1972 to serve in academics. The mathematician who challenged works of Great Scientist Albert Einstein needs our attention. 1961: Passed matriculation from Bihar Board 1961: Admitted to the prestigious Science College, Patna 1963: Went to University of California, Berkley to study Mathematics under Prof. John L. Kelley 1963 - 1969: Pursued special MSc in Mathematics. 1969: Got PhD from University of California, Berkley, USA 1969: Joined NASA as an Associate Scientist Professor in Washington DC, USA 1969 - 1972: Remained in NASA 1972: Returned to India 1972: Joined as a Lecturer in Indian Institute of Technology (IIT), Kanpur. 1972 - 1977: Joined as a lecturer in IIT Kanpur, Tata Institute of Fundamental Research (TIFR), Bombay and Indian Statistical Institute (ISI), Kolkata. 1977: shows symptom of Mental illness, Schizophrenia, admitted to the mental hospital at Ranchi, then Bihar, now in Jharkhand. 1977 - 1988:under treatment. 1988- Left home without informing anyone. 1988 - 1992: There was no information about him. 1992-(Feb. Month): He was found in a poor condition in Siwan, Bihar. At Present-Staying in Home,under treatment. 2013 - Lives in complete anonymity with none to care for him. Can we learn to respect? Why do we always fail to respect true geniuses? Share this and let all know..

Sunday 12 January 2014

लक्ष्मण रेखा न तो मर्यादा की सीमा रेखा थी और न ही सुरक्षा की चेतावनी

लक्ष्मण रेखा न तो मर्यादा की सीमा रेखा थी और न ही सुरक्षा की चेतावनी, क्योंकि सीता स्वयं मर्यादा थी और श्री राम मर्यादा के रक्षक. अब जिसके रक्षक खुद राम हों उन्हें किससे भय हो सकता है. लक्ष्मण रेखा अनुल्लंघनीय भी नहीं थी एक महान उद्देश्य के लिए उसका लांघ जाना भी जरुरी था. लक्ष्मण रेखा सीख थी उपाय था सुरक्षा और मर्यादा का प्रतीक मात्र.. उद्धेश्य था रावण का वध जो हुआ भी सफलतापूर्वक. जनता खुश हुई आतिशबाजी हुई मेले लगे.. राम अयोध्या लौटे.. और भूल गए कि मर्यादा, रावन के वध से ज्यादा जरुरी थी उसकी सुरक्षा जरुरी थी उसे सहेजना जरुरी था..लेकिन नहीं देर हो चुकी थी, कुछ वर्षों बाद धरती फटी मर्यादा उसमें समा गयी हमेशा के लिए.. राम देखते रह गए प्रजा ने भी देखा.. दुःख मनाया फिर भूल गए ..ख़ुशी मनाई कि अब दुष्ट रावन नहीं रहा. आज भी मना रहे हैं और शायद हमेशा जारी रहे..याद नहीं वो दिन कौन सा था जब मर्यादा धरती में समायी थी वही मर्यादा जो रावन के वध का सबसे बड़ा कारण थी..

हर "चौबेपुर" और "बलिहार" के बीच मैं एक नदी होती है


हर "चौबेपुर" और "बलिहार" के बीच मैं एक नदी होती है.. उम्मीद की एक नाव होती है लेकिन उसमें आशंका का छोटा सा छेद भी होता है, छेद से रिसकर पानी अन्दर आता है और गुंजा के पाँव के महावर से चन्दन के पाँव भी रंग देता है.. लाल रंग पलभर के लिए सम्बन्ध बना देता है विदाई के दुःख को कुछ देर के लिए मिलन के रंग में रंग देता है.. चन्दन को शरमाते हुए देखकर गुंजा कहती है.. एक दिन तो रंगना ही है फिर लजाते क्यू हो.? अभिव्यक्ति के अनगिनत सटीक तरीके हैं सीखने के लिए.. फिल्म आज भी सुपर हिट है "नदिया के पार".

अब ठलुआई भी खटकने लगी

कहीं सुना था लुच्चा शब्द की उत्पत्ति लोचन शब्द से हुई है जो की आँखों का पर्यायवाची है..किसी को ३ सेकण्ड तक देखना सामान्य बात है लेकिन एक बार मैं इससे ज्यादा सेकण्ड तक देखना घूरना कहलाता है.. जब कोई आदमी किसी महिला को "घूरता" है तो उसे "लुच्चा" और अगर वो बेरोजगार भी है तो उसके नाम के साथ "लफंगा" भी जोड़ दिया जाता था.. किसी ज़माने मैं लुच्चे और लफंगे गलियों और नुक्कड़ों की शान हुआ करते थे. इलाके की पान और चाय की दुकानों पर इनसे जहाँ रोनक बनी रहती थी वहीँ होलिका दहन, मटकी फोड़ प्रतियोगिता और चन्दा इकट्ठा करने की जिम्मेदारी भी इन्ही के कन्धों पर हुआ करती थी. मोहल्ले के अघोषित सुरक्षा गार्ड भी यही हुआ करते थे और कई बार हंगामे की वजह भी.. लेकिन लगातार बन रहे इन कड़े कानूनों की वजह से यह तबका लुप्त होने की कगार पर है.. सुना है घूरने वाले को जमानत भी नसीब न होगी.. सरकार की आँखों में इनका हुनर तो पहले से खटकता था अब ठलुआई भी खटकने लगी..

मकान चुगलखोर हो गए


कभी कभी शक होता है कि "मुद्रा स्फीति" "जीडीपी" और "प्रति व्यक्ति आय" जैसे भारी भरकम शब्दों से अमीरी और गरीबी का कोई सम्बन्ध है भी या नहीं.. खैर.. पड़ोस के मकान कि पतली दीवारों ने कल रात घर गृहस्थी कि कुछ तू-तू मैं-मैं हमारे मकान से चुगल दीं, और हमारे मकान ने हमसे.. सुबह पडोसी भैया और मैं अपनी गाड़ी धो रहे थे कि तभी हमने पत्रकारिता वाले अंदाज में कुछ यूँ चर्चा छेड़ दी..! भाई साहब अब आप ही बताइए सन 1970 मे घर की दीवारों की मोटाई 6 फुट तक हुआ करती थी जो की 2013 मे औसतन 6 इंच रह गयी है. दीवारों के पतला होने से मोहल्ले तो खूबसूरत हुए लेकिन मकान चुगलखोर हो गए.. भाईसाहब इशारा समझ गए ठहाका मारकर बोले भाई ज़माने के साथ कुछ और भी बदलना चाहिए, जैसे "मंगनी" में नई अंगूठी कि जगह पुरानी मोबाइल सिम कि अदला बदली हो ताकि एक दूसरे को समझा जा सके.. हमने कहा व्हाट एन आइडिया...!

इश्क का कोई सिद्धांत नहीं होता

इश्क का कोई सिद्धांत नहीं होता, न ही हो सकता है,.. यह कब हो सकता है कब नहीं, कब ज्यादा वाला होता है कब कम वाला.. इसका कोई गणित नहीं है.. होने पर आये तो उम्र, रूप-रंग, धन- दौलत, राजा- फ़कीर कुछ न देखे.. बिगड़ने पर आये तो एक छींक से बिगड़ जाए.. इश्क सपने दिखाता है..उम्मीदें जगा देता है..यही उम्मीदें पहले जीने का सहारा बनती है, फिर जिन्दगी बन जाती है और कभी कभी जिद भी.. लड़कपन में पैदा हुआ जोया के प्रति स्वाभाविक आकर्षण कुंदन के मन में गहरे तक जगह बना लेता है..पंद्रह थप्पड़ों के बाद एक दिलकश इकरार की ऊष्मा आकर्षण को ठोस इश्क में बदल देती है फिर यहीं से शुरू होता है उम्मीद का सिलसिला जो कुंदन की मौत पर जाकर ख़त्म होता है.. पहला प्यार, सच्चा प्यार, अच्छा प्यार, उचित प्यार और अनुचित प्यार जैसे कई प्रकार हैं प्यार के.. लेकिन बिडम्बना यह है, कि ये प्रकार प्यार की प्रारंभिक स्थिति में दिखाई नहीं देते और जब ये अपने असली रूप में आता हैं बहुत देर हो चुकी होती है. बचपन की दोस्ती मुरारी और बिंदिया ने बखूबी निभाई और जोया अपने सपनो से मजबूर नजर आई. कुंदन आखिरी दम तक दोस्ती, मोहब्बत निभाता रहा, सही किये पर भी माफ़ी मांगता रहा और गलत पर भी.. मोहब्बत की जंग में योद्धा की तरह लड़ा और वीरगति को प्राप्त हुआ, जो चाहता गया वो पाता गया. लड़ता, जीतता और दान कर देता.. फिर चाहे वो प्यार हो या सत्ता. वो बना ही इसीलिए था "काशी का पंडित था, और वो भी काला" ऐसा "रांझणा" जिसके लिए हीर बनी ही नहीं थी..!
मनमोहक गीत-संगीत.. वजनदार, सार्थक संवाद और दिलकश अदाकारी.. ये फिल्म घर तक आपके साथ आएगी..!

कमर्शियल मंदिर में नहीं मिलता दैवीय सुकून

बीते बीस सालों में मथुरा और वृंदावन दोनों का काफी विस्तार हो चुका है और जारी है, जैसे बाक़ी शहरों का हो रहा है, अलग जैसा कुछ नहीं है "जन्म भूमि" मंदिर और "बांके बिहारी" मंदिर में जो
दैवीय सुकून मिलता है वो नए बने किसी कमर्शियल मंदिर में नहीं मिलता आप बनावट और ख़ूबसूरती से भले ही प्रभावित हो जायें लेकिन कृष्ण से जोड़ दे ऐसी कोई नई जगह नहीं, जैसे परदेश में घर के जैसी दिखने वाली जगह आँखे नम कर देती है,,बेहद सुख देती है लेकिन अपने शहर में अपने घर का कोई विकल्प नहीं होता, मूर्तियों से ज्यादा दान पेटियां और सबके अलग नाम, दूध, दही, रवड़ी और पेड़े की पुरानी दुकानें पुराने शहर की शक़्ल पहचानने में मदद करती हैं, हर धर्मशालाओं कि जगह होटल्स ने लेली है, और हद तो ये कि लोगो को अपने घर के बाहर लिखना पड़ रहा है कि ये होटल नहीं है घर है,,,! शोरूम, मॉल की तरह नए मंदिर बन रहे हैं, कृष्ण हर मंदिर में अलग रंग- रूप. अलग नाम, अलग श्रृंगार में भक्तों के स्वागत के लिए खड़े नजर आते हैं, कृष्ण मॉडल बन गए से लगते हैं, कृष्ण का यूज़ हो रहा है,, में सुबह ६ बजे पहुच गया था बाजार ८.३० पर मंदिर के साथ खुला, बाजार और मंदिर एक साथ खुला, ये सही नहीं लगा,, खैर हाथी घोडा पालकी जय कन्हैया लाल की..

रोगशैय्या पर प्रेमचंद

रोगशैय्या पर प्रेमचंद, अपनी अंतिम बीमारी के वक्त। रामकटोरा वाले घर में यह तस्वीर 'अज्ञेय' ने सितम्बर 1936 में ली थी, जब वे उपन्यास-सम्राट की मिजाज-पुरसी के लिए बनारस गए। अगले महीने प्रेमचंद का परलोकगमन हो गया था। आपको पता है, अज्ञेय की पहली कहानी 'अमर-वल्लरी' प्रेमचंद ने ही प्रकाशित की थी, 'जागरण' में 5 अक्तूबर, 1932 को। अज्ञेय तब, अन्य क्रांतिकारियों के साथ, दिल्ली षड्यंत्र मुकदमे में जेल काट रहे थे, जहाँ से तीन साल बाद छूटे।

"औपचारिक" शब्द मुझे अनावश्यक सा लगता है

कभी कभी "औपचारिक" शब्द मुझे अनावश्यक सा लगता है, कभी कभी बेहद जरुरी क्रिया और कभी कभी गहन शोध का विषय,, समाज सञ्चालन में इसकी भूमिका कभी संदिग्ध सी लगती है और कभी महत्त्वपूर्ण,, फिर भी ये क्रिया या क्रियाओं का समूह कभी अपनी महत्ता को पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं कर पाया,, जैसे कई बार धोके में आविष्कार हो जाते हैं फिर सिद्धांत की खोज की जाती है, वैज्ञानिक जिंदगी भर समझता है कि उसने अविष्कार किया लेकिन सच में उसने अविष्कार के पीछे का सिद्धांत ढूंढने में ज्यादा वक़्त लगाया ताकि पूछने पर बता सके कि उसने यह कैसे बनाया,, और अगली पीढ़ी के अध्ययन हेतु सामग्री उपलब्ध हो सके,, अगर वैज्ञानिक ठीक से समझा पाया तो ठीक वरना शोध जारी रहेगा,, कहीं कहीं औपचारिकताओं का जन्म भी कुछ खास उद्देश्यों कि पूर्ती के लिए धोखे में हुआ उस खास वक़्त की जरूरतों को पूरा करने के लिए हुआ, इनके निर्माण की थ्योरी नहीं लिखी गयी इसलिए विोधाभास पैदा हुए और चापलूसों, गुलामों, पीड़ितों, दलितों, राजाओं, बजीरों, सैनिकों कि भाव भंगिमाओं और क्रियाओं को औपचारिकता की क्रिया मान लिया गया, मसलन काम निकालना है, नोकरी बचाना है तो चापलूसों कि तरह हरकत करो, विरोध मत करो. क्षमता नहीं है लेकिन फिर भी सम्मान पाना है तो राजा कि तरह अकड़ कर रहो इत्यादि, ये जरूरतें मौखिक रूप से संस्कारों के रूप में प्रवाहित होती चली गयी और कालांतर में औपचारिकतायें बन गयी,, सच्चा प्रेम सच्ची श्रद्धा आज भी औचारिक्ताओं का विरोध ही करता है जहाँ सच नहीं है वहाँ औचारिकता है, ये सच को छुपाने का उपाय है,, सच को छुपाने के लिए की जाने वाली क्रिया है औपचारिकता, हाँ अब ये बात अलग है कि हमारे दैनिक क्रियाकलापों में ये क्रिया इतनी घुल मिल गयी है कि "इस औपचारिकता कि क्या जरुरत थी" कहना भी एक औपचारिकता ही लगती है

पत्रकारिता शायद जीवित रहे

सुना है पत्रकार आशुतोष "आप" ज्वाइन करने वाले हैं,, क्यू भाई क्या कमी रह गयी थी दर्शकों के लाड़ प्यार में, जब कई सौ पत्रकारों को आपके संपादक रहते हुए चेन्नल ने बहार निकाल दिया गया था,, तब आपका ये कथित आम आदमी क्यू नहीं जागा, पूंजीपतियों के समर्थन में आप खड़े रहे और पत्रकारों के घर के बर्तन भाड़े बिकते रहे,, कोई मकान का किराया नहीं दे पाया, कोई बच्चे कि फीस न भर पाया,, तब आप सड़क पर क्यू न आये, आपने विरोध में इस्तीफ़ा क्यू नहीं दिया,,? केजरीवाल के सी.एम् बनते ही जमीर क्यू जाग गया,,, राहुल कँवल को भी यही नसीहत है, वापस ऑफिस जाओ, फाउंडेशन पोतो, सूट पहनो और अपना काम करो, इससे पत्रकारिता शायद जीवित रहे और आम आदमी का आम आदमी पर भरोसा भी,,,!

थिंक अगेन

ये लड़कियां गरीब हैं, इनका डांस कोई नामी कोरियोग्राफर निर्देशित नहीं करता, इसलिए डांस का लय ताल से कोई समबन्ध नहीं होता, अदाओं पर ज्यादा ज़ोर दिया जाता है,, इनके शो की टिकट 20-25 रूपये होती है और मेहनताना बमुश्किल प्रति शो या प्रतिदिन 300 से 400 रुपये, ये गाओं कस्बों के मेले ठेले में नाचते हैं, इनका शो गरीब किसान, बेरोजगार युवा, मेले मैं तैनात कॉन्स्टेबल( मुफ्त में) देखते हैं,, सिर्फ इसीलिये इसे अश्लील डांस कहा जाता है,,! लेकिन जहाँ परिस्थितियां इसके बिपरीत होती है, उसे महोत्सव कहा जाता है बड़ा महोत्सव, या श्रद्धांजलि समारोह। कपडे उतने ही लेकिन महंगे, धुले और चमकदार, अदायें वही बस तराशी हुई और तालबद्ध, कुलीन दिखने वाली गोरी चिट्टी, तंदुरुस्त, नामी रोलमॉडल महिलायें, शो का बजट 300 करोड़, यहाँ बाप- बेटा, मंत्री, नेता, आई जी, सब मिल जुलकर डांस का आनंद लेते हैं हैं,, २००० पुलिस सुरक्षा मैं तैनात,, मजाल जो कोई मनचला अश्लील कमेंट या इशारा कर दे,, थिंक अगेन चचा केजरीवाल हमें आदमी आम नहीं चरित्रवान और न्यायप्रिय चाहिए सब सुधर जायेगा,, !

आम आदमी होना भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं

चुनावी स्टंट, वोट लालसा और फ्री बिजली पानी के लालच में भले ही खुद को आम आदमी मानते रहिये पर अपने बच्चों को कभी ये अहसास मत दिलाना कि वो आम आदमी हैं,, ये उनकी तरक्की में बाधक होगा, आम आदमी जैसा कुछ नहीं होता,, ये भ्रम है,, होती है तो भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भारत के पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब, मुंशी प्रेमचंद्र, भगत सिंह, अब्राहम लिंकन, स्टीव जॉब्स, बिल गेट्स, आदि गरीब थे पर आम आदमी नहीं थे, विश्व के टॉप १० अरबपति अनाथ थे, गरीब थे पर आम आदमी नहीं थे वो खास थे, खुदको आम मानते तो कभी खास न बन पाते, khud को ख़ास मानते रहे और एक दिन खास बन भी गए..! दुनिया का सारा साहित्य, सारी महान प्रतिभायें सिर्फ इसी कोशिश में रही कि कोई भी आम आदमी न रहे हर आदमी खास हो जाये,, याद रखिये ठगा वही जाता है जो जागरूक नहीं रहता या लालच के वश में रहता है.. वोट उसे दीजिये जो आपको अहसास दिलाये कि आप खास हैं,, आम को खास बनाने का वादा करे जो तरक्की का वादा करे,, आपकी संतानों के लिए एक उन्नत, उपजाऊ राष्ट्र निर्माण करने का वादा करे,,!

जनसंपर्क अधिकारियों अब ईमेल छोड़ो, मुनादी करो।

इस हफ्ते 4,000 से अधिक भारतीय पत्रकार और जनसंपर्क अधिकारी मुनादी में रजिस्ट्रेशन कर चुके हैं । तो आप किस बात का इंतज़ार कर रहे हैं ?  बाउंस...